Saturday 20 February 2016

शनिदेव को क्‍यों चढ़ाया जाता है तेल?

ग्रहों में शनिदेव को कर्मों का फल देना वाला ग्रह माना गया है. शनिदेव एकमात्र ऐसे देव हैं जिनकी पूजा लोग डर की वजह से करते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है शनि देव न्‍याय के देवता हैं जो इंसान को उसके कर्म के हिसाब से फल देते हैं.
अकसर देखा गया है कि शनिवार के दिन शनिदेव पर तेल चढ़ाया जाता है और सरसों के तेल का ही दीपक भी जलाया जाता है. तेल और शनि के बीच क्‍या संबंध है? ऐसा क्‍यों है कि शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है? शनिदेव को तेल चढ़ाने के पीछे दो पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं.
आइए जानें शनिदेव को तेल चढ़ाने का कारण और इसकी कथा...
पहली कथा का संबंध है रावण
शनिदेव को तेल चढ़ाने के लिए यह पौराणिक कथा काफी प्रचलित है. माना जाता है कि रावण अपने अहंकार में चूर था और उसने अपने बल से सभी ग्रहों को बंदी बना लिया था. शनिदेव को भी उसने बंदीग्रह में उलटा लटका दिया था. उसी समय हनुमानजी प्रभु राम के दूत बनकर लंका गए हुए थे. रावण ने अहंकार में आकर हनुमाजी की पूंछ में आग लगवा दी थी.
इसी बात से क्रोधित होकर हनुमानजी ने पूरी लंका जला दी थी लंका जल गई और सारे ग्रह आजाद हो गए लेकिन उल्‍टा लटका होने के कारण शनि के शरीर में भयंकर पीड़ा हो रही थी और वह दर्द से कराह रहे थे. शनि के दर्द को शांत करने के लिए हुनमानजी ने उनके शरीर पर तेल से मालिश की थी और शनि को दर्द से मुक्‍त किया था. उसी समय शनि ने कहा था कि जो भी व्‍यक्ति श्रद्धा भक्ति से मुझ पर तेल चढ़ाएगा उसे सारी समस्‍याओं से मुक्ति मिलेगी. तभी से शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा शुरू हो गई थी.

दूसरी कथा के अनुसार शनिदेव और हनुमानजी में हुआ था युद्ध
दूसरी कथा के अनुसार एक बार शनि देव को अपने बल और पराक्रम पर घमंड हो गया था. लेकिन उस काल में भगवान हनुमान के बल और पराक्रम की कीर्ति चारों दिशाओं में फैली हुई थी. जब शनि देव को भगवान हनुमान के बारे में पता चला तो वह भगवान हनुमान से युद्ध करने के लिए निकल पड़े. जब भगवान शनि हनुमानजी के पास पहुंचे तो देखा कि भगवान हनुमान एक शांत स्थान पर अपने स्वामी श्रीराम की भक्ति में लीन बैठे है.
शनिदेव ने उन्हें देखते ही युद्ध के लिए ललकारा. जब भगवान हनुमान ने शनिदेव की युद्ध की ललकार सुनी तो वह शनिदेव को समझाने पहुंचे. लेकिन शनिदेव ने एक बात न मानी और युद्ध के लिए अड़ गए. इसके बाद भगवान हनुमान और शनिदेव के बीच घमासान युद्ध हुआ. युद्ध में शनिदेव भगवान हनुमान से बुरी तरह हारकर घायल हो गए, जिसके कारण उनके शरीर में पीड़ा होने लगी. इसके बाद भगवान ने शनिदेव को तेल लगाने के लिए दिया, जिससे उनका पूरा दर्द गायब हो गया. इसी कारण शनिदेव ने कहा कि जो मनुष्य मुझे सच्चे मन से तेल चढ़ाएगा. मैं उसकी सभी पीड़ा हर लूंगा और सभी मनोकामनाएं पूरी करूंगा.
इसी कारण तब से शनिदेव को तेल चढ़ाने की परंपरा की शुरुआत हुई और शनिवार का दिन शनिदेव का दिन होता है और इस दिन शनिदेव पर तेल चढ़ाने से जल्द आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होती है.

Monday 15 February 2016

बेलपत्र का महत्व

ज्योतिष के जानकारों की मानें तो भगवान शिव के पूजन में बेलपत्र का विशेष महत्व है. शिवलिंग पर बेलपत्र अर्पित करने से प्रसन्न होते हैं महादेव. मान्यता है कि शिव की उपासना बिना बेलपत्र के पूरी नहीं होती.अगर आप भी देवों के देव महादेव की विशेष कृपा पाना चाहते हैं तो बेलपत्र के महत्व को समझना बेहद ज़रूरी है. आइए जानते हैं कि बेलपत्र क्यों है शिव को इतना प्रिय और क्या है बेलपत्र का महत्व...
बेलपत्र का महत्व
बेल के पेड़ की पत्तियों को बेलपत्र कहते हैं. बेलपत्र में तीन पत्तियां एक साथ जुड़ी होती हैं लेकिन इन्हें एक ही पत्ती मानते हैं. भगवान शिव की पूजा में बेलपत्र प्रयोग होते हैं और इनके बिना शिव की उपासना सम्पूर्ण नहीं होती. पूजा के साथ ही बेलपत्र के औषधीय प्रयोग भी होते हैं. इसका प्रयोग करके तमाम बीमारियां दूर की जा सकती हैं.
बेलपत्र के प्रयोग की सावधानियां
ज्योतिष के जानकारों की मानें तो जब भी आप महादेव को बेलपत्र अर्पित करें तो कुछ बातों का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है. क्योंकि गलत तरीके से अर्पित किए हुए बेलपत्र शिव को अप्रसन्न भी कर सकते हैं.

जानिए बेलपत्र से जुड़ी इन सावधानियों के बारे में...
- एक बेलपत्र में तीन पत्तियां होनी चाहिए.
- पत्तियां कटी या टूटी हुई न हों और उनमें कोई छेद भी नहीं होना चाहिए.
- भगवान शिव को बेलपत्र चिकनी ओर से ही अर्पित करें.
- एक ही बेलपत्र को जल से धोकर बार-बार भी चढ़ा सकते हैं.
- शिव जी को बेलपत्र अर्पित करते समय साथ ही में जल की धारा जरूर चढ़ाएं.
- बिना जल के बेलपत्र अर्पित नहीं करना चाहिए.
शादी में देरी हो रही हो तो कैसे करें बेलपत्र का प्रयोग?
कई बार ना चाहते हुए भी शादी में देरी होने लगती है. कोई भी रिश्ता तय नहीं हो पाता. इसका कारण जो भी हो पर बेलपत्र के उपाय से इस समस्या का समाधान जरूर हो सकता है. तो आइए जानते हैं बेलपत्र के प्रयोग से कैसे मनचाहे समय पर होगा आपका विवाह...
- 108 बेलपत्र लें और हर बेलपत्र पर चन्दन से 'राम' लिखें.
- 'ॐ नमः शिवाय' कहते हुए बेलपत्र को शिवलिंग पर चढ़ाते जाएं.
- सारे बेल पत्र चढ़ाने के बाद शिव जी से शीघ्र विवाह की प्रार्थना करें.
गंभीर बीमारियों से छुटकारा दिलाएगा बेलपत्र
शिव जी का प्रिय बेलपत्र गंभीर बीमारियों से भी आपको छुटकारा दिला सकता है. अगर आप लंबे समय से किसी बीमारी से परेशान हैं और हर इलाज नाकाम हो रहा है तो अब आपकी ये बीमारी बेलपत्र के प्रयोग से खुद ब खुद दूर हो जाएगी...
- 108 बेलपत्र लें और एक पात्र में चन्दन का इत्र भी लें.
- अब एक-एक बेलपत्र चन्दन में डुबाते जाएं और शिवलिंग पर चढ़ाते जाएं.
- हर बेलपत्र के साथ 'ॐ हौं जूं सः' का जाप करते रहें.
- मंत्र जाप के बाद जल्दी स्वस्थ होने की प्रार्थना करें.
बेलपत्र के आयुर्वेदिक प्रयोग
बेलपत्र का केवल दैवीय प्रयोग नहीं है. यह तमाम औषधियों में भी काम आता है. इसके प्रयोग से आपकी सेहत से जुड़ी तमाम समस्याएं चुटकियों में हल होती हैं. आइए जानें क्या-क्या हैं बेलपत्र के औषधीय प्रयोग...
- बेलपत्र का रस आंख में डालने से आंखों की ज्योति बढ़ती है.
- बेलपत्र का काढ़ा शहद में मिलाकर पीने से खांसी से राहत मिलती है.
- सुबह 11 बेलपत्रों का रस पीने से पुराना सिरदर्द भी ठीक हो जाता है.
अगर मुकदमे या विवाद से छुटकारा पाना हो
अगर आपकी जिंदगी विवादों से घिरी रहती है. कोर्ट-कचहरी के चक्कर आपका पीछा नहीं छोड़ रहे हो तो बेलपत्र के एक प्रयोग से इस समस्या का भी समाधान हो सकता है...
- रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में रामराज्याभिषेक तक जाएं.
- राज्याभिषेक के समय शिव जी ने श्री राम की जो स्तुति की है उसका पाठ करें.
- रोज सुबह प्रेम सहित श्री राम स्तुति का पाठ करने से सारी बाधाएं दूर होंगी.
बेलपत्र के प्रयोग से कैसे भरेगी सूनी गोद?
जी हां, बिल्कुल सही सुना आपने. संतान प्राप्ति की आपकी ख्वाहिश बहुत जल्दी पूरी हो सकती है. अगर आप संतान की ख्वाहिश में दर-दर भटक रहे हैं तो बेलपत्र के कारगर औऱ चमत्कारी प्रयोग से बहुत जल्दी आपकी सूनी गोद भर सकती है. इसके करें ये उपाय...
- अपनी उम्र के बराबर बेलपत्र लें और एक बर्तन में कच्चा दूध लें.
- एक-एक बेलपत्र दूध में डूबाते जाएं और शिवलिंग पर चढ़ाए जाएं.
- हर बेलपत्र चढ़ाने के साथ 'ॐ नमो भगवते महादेवाय' का जाप करें.
- इसके बाद महादेव से संतान प्राप्ति की प्रार्थना करें.

Friday 12 February 2016

बसंत पंचमी पर करें विशेष सरस्वती पूजन

बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की विशेष कृपा होती है. इस दिन सफेद और पीले रंग का खास महत्व होता है. इस पर्व पर ज्ञान की देवी कही जाने वाली मां सरस्वती की विशेष पूजा से इंसान की बुद्धि मजबूत होती है.
बसंत पंचमी पर ऐसे करें सरस्वती पूजन -
- बसंत पंचमी पर पीले, बसंती या सफेद कपड़े पहनें, काले या लाल कपड़े बिल्कुल न पहनें.
- इसके बाद पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके पूजा शुरू करें.
- सूर्योदय के बाद ढाई घंटे या सूर्यास्त के बाद ढाई घंटे पूजा करना शुभ होगा.
- मां सरस्वती को सफेद चन्दन, पीले और सफेद फूल जरूर चढ़ाएं.
- प्रसाद में मां को मिश्री, दही और लावा चढ़ाएं.
- केसर वाली खीर का भोग लगाने से मां सरस्वती प्रसन्न होंगी.
- मां सरस्वती के मूल मंत्र "ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः" का जाप करें.
- मंत्र जाप के बाद प्रसाद ग्रहण करें.
बसंत पंचमी पर सरस्वती पूजन के लाभ -
- जिन लोगों को एकाग्रता की समस्या है, उन्हें बसंत पंचमी के दिन से रोज सुबह सरस्वती वंदना का पाठ शुरू करना चाहिए.
- जहां आप पढ़ते है उस जगह देवी सरस्वती की मूर्ति रखें.
- मां सरस्वती का बीज मंत्र लिखकर टांगना भी शुभ होगा.
- जिन लोगों को सुनने या बोलने की समस्या है वो सोने या पीतल के चौकोर टुकड़े पर मां सरस्वती का बीज मंत्र "ऐं" लिखकर पहन सकते हैं.
- संगीत के क्षेत्र में लाभ चाहिए तो केसर अभिमंत्रित करके जीभ पर "ऐं" लिखवाएं.
- किसी धार्मिक व्यक्ति या माता से "ऐं" लिखवाना अच्छा होगा.
बसंत पंचमी के विशेष प्रयोग -
बसंत पंचमी को कुछ प्रयोगों के लिए भी शुभ माना जाता है. ज्योतिष में कुछ ऐसे विशेष प्रयोग हैं जो आपकी विद्या, बुद्धि और ज्ञान से जुड़ी ख्वाहिशों को पूरा कर सकते हैं.
- बसंत पंचमी पर देवी सरस्वती को कलम चढ़ाएं और पूरे साल उसी कलम का इस्तेमाल करें.
- बसंत पंचमी के दिन पीले या सफेद कपड़े जरूर पहनें. काले रंग से दूर रहें.
- इस दिन केवल सात्विक भोजन ही करें, अच्छी सेहत और प्रसन्नता मिलेगी.
- बसंत पंचमी पर पुखराज और मोती पहनना बहुत लाभकारी होता है.
- इस तिथि पर स्फटिक की माला को मंत्र सिद्ध करके पहनना भी शुभ होगा.
- इस दिन खीर जरूर बनाएं और खाएं, घर को सुगन्धित बनाए रखें.
- लेखन में सफलता पाना चाहते हैं तो कुछ भी लिखने से पहले "ऐं" लिखें.

Thursday 11 February 2016

सुंदरकांड के प्रसंग से समझिए बुद्धि-बल का महत्व

सुंदरकांड में हनुमानजी ने मां सीता से भोजन मांगा था। तब सीताजी ने हनुमानजी से कहा अशोक वाटिका में जाकर फल खा लो। सीताजी ने कहा-
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी।।
सीताजी ने कहा हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं।
इस बात पर हनुमानजी का जवाब था-
तिन कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।
हे माता! यदि आप मन में सुख मानें, प्रसन्न होकर आज्ञा दें तो मुझे उनका भय बिल्कुल नहीं है।जिस आत्मविश्वास से हनुमानजी सीताजी को कह रहे थे, एक क्षण के लिए सीताजी को लगा कि कहीं यह अतिशयोक्ति तो नहीं है। फिर सीताजी को हनुमानजी से किया हुआ वार्तालाप याद आया।सीताजी जानती थीं कि अशोक वाटिका में प्रवेश करने का अर्थ है, सीधे रावण तक पहुंचना और रावण के सामने केवल बल से काम नहीं चलेगा, बल के साथ-साथ बुद्धि भी चाहिए। वे हनुमानजी के भीतर दोनों को संयुक्त रूप से देख चुकी थीं।हनुमानजी ने बुद्धि का प्रयोग करते हुए ही लंका प्रवेश किया और सीता की खोज की थी। इस दौरान उन्होंने बल का प्रयोग करते हुए लंका की रखवाली करने वाली लंकिनी पर भी विजय प्राप्त की थी।
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदय धरि तात मधुर फल खाहु।।
हनुमानजी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा - जाओ। हे तात! श्रीरघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ।

श्रीकृष्ण और शिशुपाल का प्रसंग

शिशुपाल की सौ गलतियां श्रीकृष्ण ने की थी माफ
महाभारत में शिशुपाल और श्रीकृष्ण का प्रसंग काफी चर्चित रहा है। शिशुपाल श्रीकृष्ण की बुआ का पुत्र था और चेदी नगर का राजा था। श्रीकृष्ण ने शिशुपाल की माता को वचन दिया था कि वे शिशुपाल की 100 गलतियां माफ करेंगे, लेकिन 100 गलतियों के बाद उसे उचित सजा भी अवश्य देंगे।
ये है शिशुपाल और श्रीकृष्ण का प्रसंग
विदर्भराज के रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली नामक पांच पुत्र और एक पुत्री रुक्मिणी थी। रुक्मिणी के माता-पिता उसका विवाह श्रीकृष्ण के साथ करना चाहते थे, लेकिन रुक्मी (रुक्मिणी का बड़ा भाई) चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल के साथ हो। अतः उसने रुक्मिणी का टीका शिशुपाल के यहां भिजवा दिया। रुक्मिणी श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी, इसलिए उसने श्रीकृष्ण को एक ब्राह्मण के हाथों संदेशा भेजा। श्रीकृष्ण भी रुक्मिणी से प्रेम करते थे और वे ये भी जानते थे कि रुक्मिणी के माता-पिता रुक्मिणी का विवाह मुझसे ही करना चाहते हैं, लेकिन बड़ा भाई रुक्मी मुझसे शत्रुता के कारण ये विवाह नहीं होने देना चाहता है। श्रीकृष्ण ने रुक्मी के विरोध के बावजूद रुक्मिणी से विवाह किया। इस विवाह को चेदिराज शिशुपाल ने अपना अपमान समझा और वह श्रीकृष्ण को शत्रु समझने लगा।
कुछ समय बाद जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ आयोजित किया। इस आयोजन में सभी प्रमुख राजाओं को आमंत्रित किया गया। चेदिराज शिशुपाल भी यज्ञ में आया था। देवपूजा के समय श्रीकृष्ण का सम्मान देखकर शिशुपाल क्रोधित हो गया और उसने श्रीकृष्ण को अपशब्द कहना शुरू कर दिए। यज्ञ में उपस्थित सभी लोगों ने शिशुपाल को समझाने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं माना। अर्जुन और भीम शिशुपाल को मारने के लिए खड़े हो गए तो श्रीकृष्ण ने उन सभी को रोक दिया। शिशुपाल लगातार गालियां देता रहा और श्रीकृष्ण गालियां गिनते रहे। जब वह सौ अपशब्द कह चुका, तब श्रीकृष्ण ने उसे अंतिम चेतावनी दी कि अब रुक जाओ, अन्यथा परिणाम अच्छा नहीं होगा। श्रीकृष्ण के समझाने के बाद भी शिशुपाल नहीं रुका और उसने फिर से अपशब्द कहा। इसके बाद शिशुपाल के मुख से अपशब्द निकलते ही श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका मस्तक काट दिया।

दूल्हे को घोड़ी पर बैठाने की परंपरा क्यों हैं ?

क्या आप जानते हैं कि दूल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बैठाते हैं किसी और सवारी पर क्यों नहीं। दरअसल, पुराने समय में कई बार शादियों के समय युद्ध हो जाते थे।लड़ाई दुल्हन के लिए और दूल्हे द्वारा अपनी वीरता दिखाने के लिए की जाती थी। ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जब दूल्हे को दुल्हन के लिए रणभूमि में युद्ध करना पड़ा। श्रीराम और सीता के स्वयंवर के समय भी ऐसा प्रसंग हुआ था।

जब श्रीराम के गले में वरमाला डालने सीता जा रही थी तो वहां मौजूद सभी विरोधी राजाओं ने अपनी-अपनी तलवार निकाल ली थी और श्रीराम से युद्ध करने की तैयारी कर ली थी। मगर परशुराम के आने के बाद सभी को मालूम हो गया कि श्रीराम से युद्ध साक्षात् मृत्यु से युद्ध होगा। इसलिए वह युद्ध टल गया। वहीं श्रीकृष्ण और रुक्मणि के विवाह के समय भी युद्ध हुआ था। ऐसे कई प्रसंग हैं।

इन्हीं कारणों से दूल्हे को घोड़ी पर बैठाने की परंपरा शुरू की गई। वैसे उस समय हाथी की सवारी भी चलन में थी, लेकिन घोड़ा वीरता और शौर्य का प्रतीक माना जाता है। युद्ध के मैदान में घोड़े की ही अहम भूमिका होती है। दूल्हे का रूप भी किसी रणवीर के समान रहता है उसकी भी यही वजह है। आधुनिक युग में जब स्वयंवर और युद्ध जैसी परंपरा बंद हो गई तब दूल्हे को बतौर शगुन घोड़ी पर बैठाना शुरू कर दिया गया।

कृष्ण के हाथ में बांसुरी का मतलब

 बांसुरी का मतलब
कृष्ण और मुरली एक दूसरे के पर्याय रहे हैं। मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नहीं की जा सकती।उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया। दरअसल, कृष्ण की बांसुरी उनके स्वभाव की मधुरता का प्रतीक है। कृष्ण के हाथ में बांसुरी का मतलब जीवन में कै सी भी घड़ी आए हमें घबराना नहीं चाहिए। भीतर से शांति हो तो संगीत जीवन में उतरता है।
ऐसे ही अगर भक्ति पाना है तो अपने भीतर शांति कायम करने का प्रयास करें। साथ ही, शास्त्रों के अनुसार कृष्ण के बचपन के अलावा और कहीं उनके बांसुरी वादन का उल्लेख नहीं मिलता है। कृष्ण की बांसुरी प्रेम, कलात्मकता व रचनात्मकता का प्रतीक है। इसलिए कृष्ण का बांसुरी वादन इस तरफ भी इशारा करता है कि बचपन में बच्चों की कलात्मकता व रचनात्मकता पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इससे उनके मन में संवेदनाएं उत्पन्न होती है और उनका सर्वांगिण विकास होता है।
 
मोर से ब्रह्मचर्य की शिक्षा
मोर को चिर-ब्रह्मचर्य युक्त प्राणी समझा जाता है। इसलिए प्रेम में ब्रह्मचर्य की महान भावना को समाहित करने के प्रतीक रूप में कृष्ण मोर पंख धारण करते हैं। मोर मुकुट का गहरा रंग दुःख और कठिनाइयों, हल्का रंग सुख-शांति और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
 माखन व मिश्री से सीखें घुल मिल जाना
श्रीकृष्ण को माखन मिश्री बहुत ही प्रिय है। मिश्री का एक महत्वपूर्ण गुण यह है कि जब इसे माखन में मिलाया जाता है, तो उसकी मिठास माखन के कण-कण में घुल जाती है। उसके हर हिस्से में मिश्री की मिठास समा जाती है। मिश्री युक्त माखन जीवन और व्यवहार में प्रेम को अपनाने का संदेश देता है। यह बताता है कि प्रेम में किस तरह घुल- मिल जाना चाहिए।

Sunday 7 February 2016

सोमवार को मौनी अमावस्या व सोमवती अमावस्या

माघ मास की अमावस्या को माघी तथा मौनी अमावस्या कहते हैं। इस पवित्र तिथि पर मौन रहकर अथवा मुनियों के समान आचरण पूर्वक स्नान, दान करने तथा व्रत रखने का विशेष महत्व है। इस बार यह अमावस्या 8 फरवरी, सोमवार को है। सोमवार को मौनी अमावस्या होने से इसका महत्व और भी अधिक हो गया है।
मान्यताओं के अनुसार, मौनी व सोमवती अमावस्या के योग में त्रिवेणी अथवा गंगातट पर स्नान, दान करने की अपार महिमा है। मौनी अमावस्या पर नित्यकर्म से निवृत्त हो स्नान करके तिल, तिल के लड्डू, आंवला तथा कंबल आदि का दान करना चाहिए। साथ ही साधु, महात्मा तथा ब्राह्मणों के के लिए अग्नि प्रज्वलित करना चाहिए-
तैलमामलकाश्चैव तीर्थे देयास्तु नित्यश:।
तत: प्रज्वालयेद्वह्निं सेवनार्थे द्विजन्मनाम्।।
कंबलाजिनरत्नानि वासांसि विविधानि च।
चोलकानि च देयानि प्रच्छादपटास्तथा।।

इस दिन गुड़ में काला तिल मिलाकर लड्डू बनाना चाहिए तथा उसे लाल कपड़े में बांधकर ब्राह्मणों को देना चाहिए। साथ ही ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा देनी चाहिए। स्नान, दान के अलावा इस दिन पितृ श्राद्ध करने का भी विधान है।
 

मन पर संयम रखना सीखाती है मौनी अमावस्या

मौनी अमावस्या पर व्रत करने वाले को पूरे दिन मौन व्रत का पालन करना होता है इसलिए इसे योग पर आधारित व्रत भी कहते हैं। मौन का अर्थ समझा जाता है कि चुप रहना या नहीं बोलना। किंतु मौन का सही अर्थ होता है - वाणी का संयम के साथ उपयोग, आवश्यकता अनुसार बोलना, झूठ, कटु बोल न बोलना।
इस प्रकार वाणी का संयम के साथ उपयोग करने की प्रवृत्ति को मौन कहते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए मौन रखना आसान नहीं होता। यदि मानव मन पर संयम न हो तो व्यक्ति असफलता और अवनति की ओर जाता है। इसलिए मानव मन पर नियंत्रण करने का सबसे उचित तरीका है- मौन। शास्त्रों में भी वर्णित है कि मुख से ईश्वर का जप करने से जितना पुण्य मिलता है, उससे कई गुणा अधिक पुण्य मन ही मन में भगवान का नाम लेने से मिलता है।
मुनि शब्द से ही मौनी की उत्पत्ति हुई है। इसलिए इस व्रत को मौन धारण करके समापन करने वाले को मुनि पद की प्राप्ति होती है। चूंकि चन्द्रमा को मन का स्वामी माना गया है और अमावस्या को चन्द्र दर्शन नहीं होते, जिससे इस दिन मन:स्थिति कमजोर होती है। अत: मौन व्रत कर मन को संयम में रखते हुए दान-पुण्य का विधान बनाया गया है।

Friday 5 February 2016

शिव का ये मंदिर आज भी पांडवों के हिमालय भ्रमण का गवाह बना हुआ है

पहाड़ के बीच में स्थित शिव का ये मंदिर आज भी पांडवों के हिमालय भ्रमण का गवाह बना हुआ है। मंदिर में पांडवों के जमाने की चार दुर्लभ चीजें आज भी मौजूद हैं। यहां एक अग्निकुंड है। जिसको लेकर मान्यता है महाभारत काल से निरंतर जल रहा है। आज भी मौजूद हैं पांडवो का उगाया 200gm गेहूं...
- ममलेश्वर महादेव के मंदिर में 5000 हजार साल पुराना 200 ग्राम गेंहू का दाना है।
- मान्यता है कि यह गेंहू का दाना पांडवों ने उगाया था। उसी समय से इसे यहां रखा गया है।
- मंदिर में जाने पर आप पुजारी से कहकर इस दुर्लभ गेंहू के दाने को देख सकते हैं।
 
 
भीम का ढोल
मंदिर में एक विशालकाय ढोल भी रखा गया है। कहा जाता है ढोल भीम का था। मगर यहां से लौटते वक्त भीम ने इसे मंदिर में रख दिया। इसे आज भी सुरक्षित रखा गया है। इसके अलावा मंदिर में स्‍थापित पांच शिवलिंगों के बारे में मान्यता है कि यह पांडवों ने ही यहां स्‍थापित किए हैं। मंदिर भी महाभारत काल ही बताया जाता है।
कैसे पहुंचे ममलेश्वर मंदिर
ममलेश्वर मंदिर जाने के लिए आप हिमाचल पहुंचकर मंडी और शिमला दोनों रास्तों से करसोग पहुंच सकते हैं। ममलेश्वर महादेव का मंदिर करसोग बस स्टैंड से मात्र दो किलोमीटर दूर है।
 
पांडवों का दान किया गेहूं। 
 
पांडवों द्वारा स्थापित किए गए शिवलिंग। 
 
भीम का ढोल। 
 
ममलेश्वर मंदिर। 
 
 

हिंदू धर्म में दाह संस्कार की परंपरा है,जानिए इससे जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें

हिंदू धर्म में दाह संस्कार की परंपरा है। शास्त्रों और पुराणों में भी इसका उल्लेख है। आखिर क्यों किया जाता है दाह संस्कार। जानिए इससे जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें.....
-हिंदू धर्म में जन्म से मृत्यु तक सोलह संस्कार बताए गए हैं। इनमें आ‌‌ख‌िरी यानी सोलहवां संस्कार है मृत्यु के बाद होने वाले संस्कार। जिनमें व्यक्त‌ि की अंतिम व‌िदाई, दाह संस्कार के रीत‌ि-र‌िवाज शाम‌िल हैं।
- दाह संस्कार से जुड़ा एक और बड़ा न‌ियम है क‌ि व्यक्ति की मृत्यु अगर रात में या शाम ढलने के बाद होती है तो उनका अंतिम संस्कार सुबह सूर्योदय से लेकर शाम सूर्यास्त होने से पहले करना चाहिए।
- सूर्यास्त होने के बाद शव का दाह संस्कार करना शास्त्र विरुद्ध माना गया है। इसके पीछे कई कारण हैं।
- शास्त्रों का एक मत यह भी है क‌ि सूर्यास्त के बाद दाह संस्कार करने से मृतक व्यक्ति की आत्मा को परलोक में कष्ट भोगना पड़ता है और अगले जन्म में उसके किसी अंग में दोष हो सकता है।
- एक मान्यता यह भी है कि सूर्यास्त के बाद स्वर्ग का द्वार बंद हो जाता है और नर्क का द्वार खुल जाता है।
परिक्रमा के बाद क्यों फोड़ दी जाती है मटकी....

अंत‌िम संस्कार के समय एक छेद वाले घड़े में जल लेकर चिता पर रखे शव की पर‌िक्रमा की जाती है और इसे पीछे की ओर पटककर फोड़ द‌िया जाता है। इस न‌ियम के पीछे एक दार्शन‌िक संदेश छुपा है। कहते हैं क‌ि जीवन एक छेद वाले घड़े की तरह है ज‌िसमें आयु रूपी पानी हर पल टपकता रहता है और अंत में सब कुछ छोड़कर जीवात्मा चली जाता है और घड़ा रूपी जीवन समाप्त हो जाता। इस रीत‌ि के पीछे मरे हुए व्यक्त‌ि की आत्मा और जीव‌ित व्यक्त‌ि दोनों का एक-दूसरे से मोह भंग करना भी उद्देश्य होता है।
 
क्यों करते हैं मुंडन
अंत‌िम संस्कार में दाह संस्कार के बाद स‌िर मुंडाने का न‌ियम है। इसके पीछे धार्मिक और वैज्ञान‌िक दोनों ही कारण है। धार्मिक कारण यह माना जाता है क‌‌ि स‌िर मुंडवाकर मृत व्यक्त‌ि की आत्मा के प्रत‌ि श्रद्धा व्यक्त ‌क‌िया जाता है। बाल मनुष्य का श्रृंगार माना जाता है, स‌िर मुंडवाना शोक का भी प्रतीक माना जाता है, इसल‌िए ज‌िस परिवार में व्यक्त‌ि की मृत्यु होती है वह स‌िर मुंडवाते हैं।
 
पिंड दान

गरूड़ पुराण के अनुसार, मृत्यु से तेरह द‌िन तक जो पिंडदान क‌िया जाता है, उससे एक कर्मों का फल भोगने वाला अंगूठे के बराबर का शरीर तैयार होता है जो वैसा ही द‌िखता है जैसा मरा हुआ व्यक्त‌ि होता है। इस शरीर को ही यम के दूत कर्मों के अनुसार, स्वर्ग या नर्क ले जाते हैं। इसी कारण से मृत्यु के बाद तेरह द‌िन तक श्राद्ध और प‌िंड दान क‌िया जाता है।
 
अकाल मृत्यु पर....
शास्त्रों में बताया गया है क‌ि ज‌िनकी अकाल मृत्यु हुई है और शव दाह संस्कार के ल‌िए नहीं उपलब्ध हो, तब भी उनका दाह संस्कार क‌िया जाना चाह‌िए। इसके ल‌िए शास्त्रों में यह खास व्यवस्था है।
 कुश'
'कुश' एक प्रकार का घास है, ज‌‌िसका पुतला बनाकर दाह संस्कार करना चाह‌िए। ये उनके लिए है, जिनका शव नहीं मिल पाता। इस प्रकार दाह संस्कार करने से व्यक्त‌ि की आत्मा को शांत‌ि म‌िल जाती है।

कुछ मंदिरों में हट के प्रसाद दिया जाता है

मंदिरों में सामान्य तौर पर नारियल, मिश्री, सूखे मेवे, चने या कोई मिठाई प्रसाद के रूप पर दी जाती है। लेकिन भारत में कुछ मंदिर ऐसे हैं, जहां कुछ हट के प्रसाद दिया जाता है और कुछ मंदिरों में तो ऐसा प्रसाद दिया जाता है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।







Thursday 4 February 2016

क्या है तुलसी के पौधे का महत्व

हिंदू धर्म में तुलसी के पौधे से कई आध्यात्मिक बातें जुड़ी हैं. पुराणों में तुलसी की धार्मिक कथाओं जिक्र है तो धार्मिक रूप से तुलसी से जुड़ी बहुत सी मान्यताएं भी हैं. इसी के साथ यह पौधा वैज्ञानिक तौर पर भी फायदेमंद है.
जानें क्या है तुलसी के पौधे का महत्व
- भूत-प्रेत में विश्वास करने वाले लोगों के लिए यह जानना जरूरी है कि घर में तुलसी का पौधा होने से इस तरह की बाधाएं जीवन में नहीं आएंगी. तुलसी के होने से भूत-प्रेत जैसे नकारात्मक प्रभाव आप पर नहीं पड़ेंगे. हिंदू धर्म में तुसली को पवित्र व धार्मिक पौधा माना जाता है.
- तुलसी के पौधे से जुड़े कुछ धार्मिक नियम भी हैं. तुलसी की पत्तियां कुछ खास दिनों में नहीं तोड़नी चाहिए. चंद्रग्रहण, एकादशी और रविवार के दिन तुलसी की पत्तियां न तोड़ें. सूर्यास्त के बाद भी तुलसी की पत्तियां नहीं तोड़नी चाहिए. ऐसा करना अशुभ माना जाता है.
- माना जाता है कि भगवान कृष्ण के भोग में और सत्यनारायण की कथा के प्रसाद में तुलसी की पत्ती जरूर रखनी चाहिए. ऐसा नहीं करने से प्रसाद पूरा नहीं माना जाता.
- घर में तुलसी का पौधा होना शुभ होता है. इसके सामने रोज शाम को दीपक जलाने से घर में सुख-समृद्धि‍ आती है.
- मान्यता है कि तुलसी होने से घर में नकारात्मक ऊर्जा नहीं आती.
 
वैज्ञानिक तौर पर भी तुलसी के कई फायदे हैं-
- तुलसी दवा की तरह भी इस्तेमाल की जाती है. आपके घर के पीछे या घर में तुलसी होने से मच्छर और छोटे-छोटे कीड़े नहीं आते.
- रोज तुलसी की पत्ती खाना सेहत के लिए अच्छा होता है. तुलसी में बीमारियों से लड़ने के गुण हैं. यह शरीर में बीमारियों से लड़ने की क्षमता बढ़ाती है.
- तुलसी की पत्तियां खाने से खून साफ रहता है. इससे आपकी त्वचा और बाल स्वस्थ रहते हैं.